Saturday, January 9, 2021

राष्ट्रीय युवा दिवस 12 जनवरी 2021

       


 

वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानन्द  का जन्म 12 जनवरी, 1863 में हुआ था और 12 जनवरी को हम सभी "नेशनल यूथ डे" के रूप में प्रत्येक वर्ष मनाते हैं. 

जैसा की हम सभी जानते हैं देश के विकास में सबसे महत्वपूर्ण बड़ा योगदान युवाओं का होता है. और सम्पूर्ण विश्व का भविष्य युवाओं पर ही निर्भर रहती  है.  

"नेशनल यूथ डे" की शुरुआत युवाओं में  ज्ञान को बढ़ाने उनके उज्वल भविष्य और उनके अंदर की नाकारात्मक ऊर्जा को समाप्त कर साकारात्मक ऊर्जा का संचार करने के उद्देश्य से वर्ष 1984 में भारतीय सरकार द्वारा स्वामी विवेकानंद के जन्म दिवस को "राष्ट्रीय युवा डे" के रूप में मनाने की घोषणा की और उसी के बाद से प्रत्येक वर्ष इस पर्व को मनाया जाने लगा.

स्वामी विवेकानंद की जीवनी 




जन्म
नरेंद्रनाथ दत्त
12 जनवरी 1863
कलकत्ता
(अब कोलकाता)
मृत्यु
जुलाई 1902 (उम्र 39)
बेलूर मठबंगाल रियासतब्रिटिश राज
(अब बेलूरपश्चिम बंगाल में)
गुरु/शिक्षक
श्री रामकृष्ण परमहंस
दर्शन
आधुनिक वेदांत, राज योग
साहित्यिक कार्य
राज योगकर्म योगभक्ति योगज्ञान योग,माई मास्टर
कथन
"उठोजागो और तब तक नहीं रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये"

स्वामी विवेकानन्द (जन्म: १२ जनवरी,१८६३ – मृत्यु: ४ जुलाई,१९०२) वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। उनका वास्तविक नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। उन्होंने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् १८९३ में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत की ओर से सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। भारत का वेदान्त अमेरिका और यूरोप के हर एक देश में स्वामी विवेकानन्द की वक्तृता के कारण ही पहुँचा। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। उन्हें प्रमुख रूप से उनके भाषण की शुरुआत ” मेरे अमेरिकी भाइयों एवं बहनों ” के साथ करने के लिए जाना जाता है । उनके संबोधन के इस प्रथम वाक्य ने सबका दिल जीत लिया था।

स्वामी विवेकानंद का जीवनवृत्त

स्वामी विवेकानन्द का जन्म १२ जनवरी सन्‌ १८६3 को कलकत्ता में हुआ था। इनका बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था। इनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त कलकत्ता हाईकोर्ट के एक प्रसिद्ध वकील थे। उनके पिता पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र नरेन्द्र को भी अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढर्रे पर चलाना चाहते थे। इनकी माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवीजी धार्मिक विचारों की महिला थीं। उनका अधिकांश समय भगवान् शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था। नरेन्द्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इस हेतु वे पहले ‘ब्रह्म समाज’ में गये किन्तु वहाँ उनके चित्त को सन्तोष नहीं हुआ। वे वेदान्त और योग को पश्चिम संस्कृति में प्रचलित करने के लिए महत्वपूर्ण योगदान देना चाहते थे।

दैवयोग से विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का भार नरेन्द्र पर आ पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। अत्यन्त दर्रिद्रता में भी नरेन्द्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन करातेस्वयं बाहर वर्षा में रात भर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते।

स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरुदेव श्रीरामकृष्ण को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की चिंता किये बिनास्वयं के भोजन की चिंता किये बिना वे गुरु-सेवा में सतत संलग्न रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यन्त रुग्ण हो गया था।

विवेकानंद बड़े स्‍वपन्‍द्रष्‍टा थे। उन्‍होंने एक नये समाज की कल्‍पना की थीऐसा समाज जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्‍य-मनुष्‍य में कोई भेद नहीं रहे। उन्‍होंने वेदांत के सिद्धांतों को इसी रूप में रखा। अध्‍यात्‍मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धांत की जो आधार विवेकानन्‍द ने दियाउससे सबल बौदि्धक आधार शायद ही ढूंढा जा सके। विवेकानन्‍द को युवकों से बड़ी आशाएं थीं। आज के युवकों के लिए ही इस ओजस्‍वी संन्‍यासी का यह जीवन-वृत्‍त लेखक उनके समकालीन समाज एवं ऐतिहासिक पृ‍ष्‍ठभूमि के संदर्भ में उपस्थित करने का प्रयत्‍न किया है यह भी प्रयास रहा है कि इसमें विवेकानंद के सामाजिक दर्शन एव उनके मानवीय रूप का पूरा प्रकाश पड़े।


स्वामी विवेकानंद का बचपन

बचपन से ही नरेन्द्र अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के और नटखट थे। अपने साथी बच्चों के साथ तो वे शरारत करते ही थेमौका मिलने पर वे अपने अध्यापकों के साथ भी शरारत करने से नहीं चूकते थे। नरेन्द्र के घर में नियमपूर्वक रोज पूजा-पाठ होता था धार्मिक प्रवृत्ति की होने के कारण माता भुवनेश्वरी देवी को पुराणरामायणमहाभारत आदि की कथा सुनने का बहुत शौक था। कथावाचक बराबर इनके घर आते रहते थे। नियमित रूप से भजन-कीर्तन भी होता रहता था। परिवार के धार्मिक एवं आध्यात्मिक वातावरण के प्रभाव से बालक नरेन्द्र के मन में बचपन से ही धर्म एवं अध्यात्म के संस्कार गहरे पड़ गए। माता-पिता के संस्कारों और धार्मिक वातावरण के कारण बालक के मन में बचपन से ही ईश्वर को जानने और उसे प्राप्त करने की लालसा दिखाई देने लगी थी। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुक्ता में कभी-कभी वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे कि इनके माता-पिता और कथावाचक पंडितजी तक चक्कर में पड़ जाते थे।

गुरु के प्रति निष्ठा
एक बार किसी ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और निष्क्रियता दिखायी तथा घृणा से नाक-भौं सिकोड़ीं। यह देखकर स्वामी विवेकानन्द को क्रोध आ गया। उस गुरु भाई को पाठ पढ़ाते और गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्तकफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर फेंकते थे। गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वे समझ सकेस्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। समग्र विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक भंडार की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्तिगुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा!

शिकागो धर्म महा सम्मलेन भाषण  ( मूल भाषण सुनने के लिए क्लिक करें)

अमेरिकी बहनों और भाइयों,
आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया हैंउसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा हैं। संसार में संन्यासियों की सब से प्राचीन परम्परा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँधर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँऔर सभी सम्प्रदायों एवं मतों के कोटि कोटि हिन्दुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ।
मैं इस मंच पर से बोलनेवाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँजिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया हैं कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रचारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँजिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृतिदोनों की ही शिक्षा दी हैं। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करतेवरन् समस्त धर्मों को सच्चा मान कर स्वीकार करते हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान हैंजिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया हैं। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता हैं कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया थाजिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थीजिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँजिसने महान् जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा हैं। भाईयोमैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँजिसकी आवृति मैं बचपन से कर रहा हूँ और जिसकी आवृति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं:

रुचिनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।

– ‘ जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैंउसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।’

यह सभाजो अभी तक आयोजित सर्वश्रेष्ठ पवित्र सम्मेलनों में से एक हैंस्वतः ही गीता के इस अद्भुत उपदेश का प्रतिपादन एवं जगत् के प्रति उसकी घोषणा हैं:

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।

– ‘ जो कोई मेरी ओर आता हैं – चाहे किसी प्रकार से हो – मैं उसको प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न मार्ग द्वारा प्रयत्न करते हुए अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।’

साम्प्रदायिकताहठधर्मिता और उनकी बीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैंउसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैंसभ्यताओं को विध्वस्त करती और पूरे पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती रही हैं। यदि ये बीभत्स दानवी न होतीतो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता । पर अब उनका समय आ गया हैंऔर मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टाध्वनि हुई हैंवह समस्त धर्मान्धता कातलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों कातथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होनेवाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्युनिनाद सिद्ध हो।

यात्राएँ

२५ वर्ष की अवस्था में नरेन्द्र ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिये। तत्पश्चात् उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन्‌ १८९३ में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानन्द उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। योरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहाँ लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानन्द को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किन्तु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गये। फिर तो अमेरिका में उनका अत्यधिक स्वागत हुआ। वहाँ इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका में रहे और वहाँ के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। उनकी वक्तृत्व-शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ के मीडिया ने उन्हें ‘साइक्लॉनिक हिन्दू’ का नाम दिया। [3] “आध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा” यह स्वामी विवेकानन्दजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएँ स्थापित कीं। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। ४ जुलाई सन्‌ १९०२ को उन्होंने देह-त्याग किया। वे सदा अपने को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशान्तरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया। जब भी वो कहीं जाते थे तो लोग उनसे बहुत खुश होते थे।

विवेकानन्द का योगदान तथा महत्व

उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानंद जो काम कर गएवे आनेवाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे।

तीस वर्ष की आयु में स्वामी विवेकानंद ने शिकागोअमेरिका में विश्व धर्म सम्मेलन में हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व किया और उसे सार्वभौमिक पहचान दिलवाई। गुरुदेव रवींन्द्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था, ‘‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पाएँगेनकारात्मक कुछ भी नहीं।’’

रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था, ‘‘उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असंभव है। वे जहाँ भी गएसर्वप्रथम हुए। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देखकर ठिठककर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा, ‘शिव !’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।’’

वे केवल संत ही नहीं थेएक महान् देशभक्तवक्ताविचारकलेखक और मानव-प्रेमी भी थे। अमेरिका से लौटकर उन्होंने देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था, ‘‘नया भारत निकल पड़े मोदी की दुकान सेभड़भूंजे के भाड़ सेकारखाने सेहाट सेबाजार सेनिकल पडे झाड़ियोंजंगलोंपहाड़ोंपर्वतों से।’’ और जनता ने स्वामीजी की पुकार का उत्तर दिया। वह गर्व के साथ निकल पड़ी। गांधीजी को आजादी की लड़ाई में जो जन-समर्थन मिलावह विवेकानंद के आह्वान का ही फल था। इस प्रकार वे भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के भी एक प्रमुख प्रेरणा-स्रोत बने। उनका विश्वास था कि पवित्र भारतवर्ष धर्म एवं दर्शन की पुण्यभूमि है। यहीं बड़े-बड़े महात्माओं व ऋषियों का जन्म हुआयही संन्यास एवं त्याग की भूमि है तथा यहीं—केवल यहीं—आदिकाल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्श एवं मुक्ति का द्वार खुला हुआ है। उनके कथन—‘‘उठोजागोस्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर-जन्म को सफल करो और तब तक रुको नहीं जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।’’

 
विवेकानन्द का शिक्षा-दर्शन

स्वामी विवेकानन्द मैकाले द्वारा प्रतिपादित और उस समय प्रचलित अेंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थेक्योंकि इस शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ बाबुओं की संख्या बढ़ाना था। वह ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे बालक का सर्वांगीण विकास हो सके। बालक की शिक्षा का उद्देश्य उसको आत्मनिर्भर बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करना है। स्वामी विवेकानन्द ने प्रचलित शिक्षा को 'निषेधात्मक शिक्षाकी संज्ञा देते हुए कहा है कि आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता होपर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करतीजो चरित्र निर्माण नहीं करतीजो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकतीऐसी शिक्षा से क्या लाभ?

स्वामी जी शिक्षा द्वारा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन के लिए तैयार करना चाहते हैं । लौकिक दृष्टि से शिक्षा के सम्बन्ध में उन्होंने कहा है कि 'हमें ऐसी शिक्षा चाहिएजिससे चरित्र का गठन होमन का बल बढ़ेबुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलम्बी बने।पारलौकिक दृष्टि से उन्होंने कहा है कि 'शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है।'

स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त

स्वामी विवेकानन्द के शिक्षा दर्शन के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं:
१. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक का शारीरिकमानसिक एवं आत्मिक विकास हो सके।
२. शिक्षा ऐसी हो जिससे बालक के चरित्र का निर्माण होमन का विकास होबुद्धि विकसित हो तथा बालक आत्मनिर्भन बने।

३. बालक एवं बालिकाओं दोनों को समान शिक्षा देनी चाहिए।

४. धार्मिक शिक्षापुस्तकों द्वारा न देकर आचरण एवं संस्कारों द्वारा देनी चाहिए।

५. पाठ्यक्रम में लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के विषयों को स्थान देना चाहिए।

६. शिक्षागुरू गृह में प्राप्त की जा सकती है।

७. शिक्षक एवं छात्र का सम्बन्ध अधिक से अधिक निकट का होना चाहिए।

८. सर्वसाधारण में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया जान चाहिये।

९. देश की आर्थिक प्रगति के लिए तकनीकी शिक्षा की व्यवस्था की जाय।

१०. मानवीय एवं राष्ट्रीय शिक्षा परिवार से ही शुरू करनी चाहिए।

मृत्यु

उनके ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्चभर में है। जीवन के अंतिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा “एक और विवेकानंद चाहिएयह समझने के लिए कि इस विवेकानंद ने अब तक क्या किया है।” प्रत्यदर्शियों के अनुसार जीवन के अंतिम दिन भी उन्होंने अपने ‘ध्यान’ करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घंटे ध्यान किया। उन्हें दमा और शर्करा के अतिरिक्त अन्य शारीरिक व्याधियों ने घेर रक्खा था। उन्होंने कहा भी था, ‘यह बीमारियाँ मुझे चालीस वर्ष के आयु भी पार नहीं करने देंगी।’ जुलाई, 1902 को बेलूर में रामकृष्ण मठ में उन्होंने ध्यानमग्न अवस्था में महासमाधि धारण कर प्राण त्याग दिए। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मंदिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानंद तथा उनके गुरु रामकृष्ण के संदेशों के प्रचार के लिए 130 से अधिक केंद्रों की स्थापना की।

महत्त्वपूर्ण तिथियाँ

12 जनवरी,1863 : कलकत्ता में जन्म

सन् 1879 : प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रवेश

सन् 1880 : जनरल असेंबली इंस्टीट्यूशन में प्रवेश

नवंबर 1881 : श्रीरामकृष्ण से प्रथम भेंट

सन् 1882-86 : श्रीरामकृष्ण से संबद्ध

सन् 1884 : स्नातक परीक्षा उत्तीर्णपिता का स्वर्गवास

सन् 1885 : श्रीरामकृष्ण की अंतिम बीमारी

16 अगस्त, 1886 : श्रीरामकृष्ण का निधन

सन् 1886 : वराह नगर मठ की स्थापना

जनवरी 1887 : वराह नगर मठ में संन्यास की औपचारिक प्रतिज्ञा

सन् 1890-93 : परिव्राजक के रूप में भारत-भ्रमण

25 दिसंबर, 1892 : कन्याकुमारी में

13 फरवरी, 1893 : प्रथम सार्वजनिक व्याख्यान सिकंदराबाद में

31 मई, 1893 : बंबई से अमेरिका रवाना

25 जुलाई, 1893 : वैंकूवरकनाडा पहुँचे

30 जुलाई, 1893 : शिकागो आगमन

अगस्त 1893 : हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रो. जॉन राइट से भेंट

11 सितंबर, 1893 : विश्व धर्म सम्मेलनशिकागो में प्रथम व्याख्यान

27 सितंबर, 1893 : विश्व धर्म सम्मेलनशिकागो में अंतिम व्याख्यान

16 मई, 1894 : हार्वर्ड विश्वविद्यालय में संभाषण

नवंबर 1894 : न्यूयॉर्क में वेदांत समिति की स्थापना

जनवरी 1895 : न्यूयॉर्क में धार्मिक कक्षाओं का संचालन आरंभ

अगस्त 1895 : पेरिस में

अक्तूबर 1895 : लंदन में व्याख्यान

दिसंबर, 1895 : वापस न्यूयॉर्क

22-25 मार्च, 1896 : वापस लंदन

मई-जुलाई 1896 : हार्वर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान

15 अप्रैल, 1896 : वापस लंदन

मई-जुलाई 1896 : लंदन में धार्मिक कक्षाएँ

28 मई, 1896 : ऑक्सफोर्ड में मैक्समूलर से भेंट

30 दिसंबर, 1896 : नेपल्स से भारत की ओर रवाना

15 जनवरी, 1897 : कोलंबोश्रीलंका आगमन

6-15 फरवरी, 1897 : मद्रास में

19 फरवरी, 1897 : कलकत्ता आगमन

मई, 1897 : रामकृष्ण मिशन की स्थापना

मई-दिसंबर 1897 : उत्तर भारत की यात्रा

जनवरी 1898: कलकत्ता वापसी

19 मार्च, 1899 : मायावती में अद्वैत आश्रम की स्थापना

20 जून, 1899 : पश्चिमी देशों की दूसरी यात्रा

31 जुलाई, 1899 : न्यूयॉर्क आगमन

22 फरवरी, 1900 : सैन फ्रांसिस्को में वेदांत समिति की स्थापना

जून 1900 : न्यूयॉर्क में अंतिम कक्षा

26 जुलाई, 1900 : यूरोप रवाना

24 अक्तूबर, 1900 : विएनाहंगरीकुस्तुनतुनियाग्रीसमिस्र आदि देशों की यात्रा

26 नवंबर, 1900 : भारत रवाना

दिसंबर, 1900 : बेलूर मठ आगमन

जनवरी 1901 : मायावती की यात्रा

मार्च-मई 1901 : पूर्वी बंगाल और असम की तीर्थयात्रा

जनवरी-फरवरी 1902 : बोधगया और वारणसी की यात्रा

मार्च 1902 : बेलूर मठ में वापसी

जुलाई, 1902 : महासमाधि।सवा


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